नागरिकता अधिनियम वो कानून है जिसके द्वारा विभिन्न राष्ट्र अपने नागरिकों को, उनके अधिकारों को और उनके कर्तव्यों को परिभाषित करता है. इस कानून द्वारा निवासी और नागरिक में फर्क किया जाता और जबकि निवासियों के पास भी कुछ अधिकार होते हैं, अधिकतर कानूनी अधिकार नागरिकों के पास होते हैं. नागरिकता एक कानूनी मुद्दा है. भारत में १९५५ मैं ये अधिनियम सबसे पहली बार पास किया गया था. इस अधिनियम में कई संशोधन किये गए हैं और सबसे नवीनतम संदशोधन जुलाई २०१६ में किया गया. इस संदशोधन के अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रह रहे धार्मिक अल्पसंख्यकों (हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई) का भार में स्वागत है. इस संसोधन के द्वारा समीकरण से नागरिकता प्राप्त करने की समय अवधि अब ६ वर्ष कर दी गयी है. कहने का अर्थ ये है की पहले नागरिकता प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति को काम से काम ११ साल भारत में रहना होता था अथवा केंद्र सरकार के अधीन कार्यरत होना होता था. ये अवधि अब घटा के ६ साल कर दी गयी है.
इस अधिनियम से जुडी हुई कुछ बातें हैं जिनपर बात करना ज़रूरी है. सबसे पहला मुद्दा है की इस कानून के किसे फायदा होगा। इस कानून द्वारा भारतीय सरकार ने अल्पसंख्यकों को परिभाषित कर दिया है  और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश में रह रहे इन अल्पसंख्यक वर्गों के पास ये विकल्प है की वो भारतीय नागरिक बन पाएं। इन तीनों देशों में रहन रहे मुस्लिमों के पास ये विकल्प नहीं है. ये परिभाषा विवाद का विषय है. इस परिभाषा में ये धरना है की इन देशों में मुस्लिमों के साथ कोई भेद भाव नहीं हो रहा, जो भी भेद भाव हो रहा है वो बाकी धर्म के लोगों के साथ हो रहा है और इसीलिए भारत उनको एक सुरक्षित विकल्प दे रहा है. ये धारण गलत है. अगर हम पाकिस्तान की बात करें तो वहां अहमदिया मुसलामानों के साथ बहुत बर्बर व्यवहार किया जाता है और भेदभाव किया जाता है. पाकिस्तान में उन्हें मुस्लिम ही नहीं माना जाता है. धर्म के नाम पर उनकी पहचान को सवालिया नज़रों से देखा जाता है.
इसी तरह सरकार ने कोई स्पष्ठ कारण नहीं दिया है की नेपाल और सरीक लंका के लिए ये अधिनियम क्यों लागू नहीं किया गया है.  श्रीलंका में मुद्दा और भी जटिल है. श्रीलंका के शरणार्थी मुद्दे पर नेहरू ने कहा था की शरणार्थियों का भरा में स्वागत है और उन्हें अधिकार भी दिए जाएँगे। उन्होंने कहा था की शरणार्थियों का मुद्दा एक द्विपक्षीय मुद्दा है. जब श्रीलंका की सरकार ने कहा था की तमिलों को भारत वापस चला जाना चाहिए तब नेहरू ने कहा था के तमिल लोगों को फैसला करना चाहिए वो कहाँ रहना चाहते हैं. उनके बाद के प्रधान मंत्रियों ने नेहरू की इस बात को दरकिनार कर के श्रीलंका के सरकारों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश की जिसके परिणामस्वरूप तमिलों के साथ श्रीलंका में दूसरे दर्जे का सुलूक किया गया. तमिल राष्ट्रवाद की वृद्धि का ये एक मुख्य कारण था. कहने का मतलब ये है की श्रीलंका में भेदभाव धर्म के आधार पर नहीं, वंश के आधार पर होता है. वहीँ नेपाल में मधेशियों के साथ भेदभाव होता है.  ये लोग मैदानी इलाकों के रहने वाले हैं और इन्हें नेपाली नहीं माना जाता। अगर म्यांमार की बात करें तो वहां भी रोहिंग्या मुसलामानों के साथ हेड भाव किया जाता है. चीन में मुस्लिमों और तिब्ब्बतीयों के साथ बुरा सुलूक होता है. हम देख सकता हैं की हमारा हर पडोसी देश में अल्पसंख्यकों के अलग अलग परिभाषा है. मुस्लिमों के साथ भी बर्बरता के बहुत से उदाहरण है. ऐसे समय में भारतीय सरकार के अपनी परिभाषा बहुत हद तक हिंदूवादी राष्ट्रवाद से प्रेरित लगती है. ऐसा लगता है की ईसाइयों का इस लिस्ट में शामिल होना दिखावा मात्र है.
हम सब बांग्लादेशी सर्नार्थियों के मुद्दे से भलीभांति वाकिफ हैं. इस संसोधन के बाद हम मुसलमान शरणार्थियों को वापस जाने के लिए मजबूर कर देंगे। ये संसोधन अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकारों और शरणार्थियों के अधिकारों का उलंघन है. ऐसा लगता है की ये संसोधन प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी वादे की वो भारत को दुनिया भर के हिंदुओं का घर बनाएँगे को पूरा करने के एक कोशिश है जो बहुत जल्दीबाज़ी में सोची गयी है. नागरिकता को हिन्दू राष्ट्रवाद से जोड़ना खरनाक है. हम आशा करते हैं की इस नियम में औए बदलाव किये जाएंगे ताकि ये कानून मानवाधिकारों की कसौटी के खरा उतरे।
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Akshay Palande

Akshay Palande is a passionate teacher helping hundreds of students in their UPSC preparation. With a degree in Mechanical Engineering and double masters in Public Administration and Economics, he has experience of teaching UPSC aspirants for 5 years. His subject of expertise are Geography, Polity, Economics and Environment and Ecology.

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